CORONAVIRUS: LIFE THOUGHTS UNDER LOCKDOWN

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Journey to city

Recalling memories amid coronavirus lockdown|coronavirus poem |

Coronavirus peoms
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जीवन की एक झलक

unspoken journey of some students with pain

इस महामारी के दौर मे जहाँ पूरी दुनिया इसकी चपेट में है, और प्रकृति ने अपने खिलाफ हो रहे अत्याचारो को सीमित करने के लिये धकेल दिया समस्त मानव प्रजाति को उनके-उनके घरों में।
ऐसे ही प्रकृति ने मुझे भी धकेल दिया उस घर मे जिसे मैं आज से कई साल पहले छोड़ के अच्छी शिक्षा के लिये शहरो की तरफ रुख मोड़ लिया था। वो घर जिसकी नींव की पहली ईंट से लेकर पुरा मकान बनते देखा था।

वो घर जो मेरे सपनो का घर हुआ करता था, जिसके पुरा होते-होते मेरे स्कुल की पढ़ाई पूरी हो गयी और मैं शहर की बड़ी बड़ी इमारतों और चौड़ी सड़कों के बीच में अपना भविष्य तलाशने लगा और अपने उसी सपनो के घर में मैं मेहमानो की तरह आने लगा।

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आज वक्त ने करवट लिया है और मुझे मौका दिया है की मैं उस घर मे अच्छे से जी तो लू, जिसके दीवारो के रंगो को भी मैं अपने कल्पनाओं मे सोच कर खुश हुआ करता था। खुश होता था मैं यह सोच कर की यहाँ सोफ़ा लगेगा और यहाँ खाने की टेबल और इस रंग के पर्दे लगेंगे। आज वही घर है,दीवारो के रंग भी वही है जो सोचा था, घर में सोफ़ा नहीं है, लेकिन बैठने के लिये कुर्शियां है,लेकिन ना जाने क्यूँ इस सपनो के घर में मन उदास सा रह रहा है, कैद सा महशुस हो रहा है। और ना जाने क्यूँ उस किराये के मकान की याद आ रही है जिसकी कीमत से ज्यादा हमने उसका किराया दे दिया है।


शायद यह हर महत्वाकांक्षी विध्यार्थी के जीवन की कहानी है कि एक बार घर छुट गया तो जीवन पढ़ाई और पढ़ाई के बाद नौकरी करने और चंद पैसे कमाने मे गुजर जाता है, और सुना पड़ जाता है ओ घर जो कभी हमारे शोर गुल और पिताजी की डांट से बाग हुआ करता था।

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